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आलोचना

सभ्यताओं के अवशेष में अपना जीवाश्म खोजती कविता

सुबोध शुक्ल


(कवि हरीशचंद्र पांडे की कविताओं से एक संवाद)

पेड़ों का एक थका झुरमुट/ ढलान के पाँव जकड़ लेता है/ टहनियों के जाल से/ मैं उड़ान का पुनर्जन्म देखता हूँ (गुसेप अंगारेत्ती)

कविता के सवाल, अंततः मनुष्यता की सामूहिक आपबीती और उसके समवेत संघर्षों की समीक्षा के सवाल रहे हैं। सरल और औसत के सहानुभूतिपरक आयामों से अलग, कविता की उपस्थिति इस आत्ममुग्ध समय में मनुष्यता के जितने जिद्दी और ठोस पाठ की उम्मीद करती है उतनी ही अनुत्तेजित और चुनौतीपूर्ण संवाद की भी।

जब सहूलियतों के समाजशास्त्र, जीवन की संवेदनशील विवशता को, आक्रामक तटस्थता में बदलने में संलग्न हों और प्रासंगिकताओं को सनसनीखेजपन में तब्दील करता एक खिलवाड़ी आततायीपन मनमाने रवैयों से, संबंधों के चरित्र और उनके विन्यास को संदिग्ध करता चल रहा हो, ऐसे चोटिल समय में कविता का दखल जितना वैचारिक सापेक्षता के एक वैकल्पिक ढाँचे की माँग करता है उतने ही उद्रेक और आवेग से लथपथ एक गुस्सैल भाषा की भी।

हिंदी कविता का वर्तमान एक तरह के रोमानी पश्चाताप और अकाल विफलता से ग्रस्त भयातुर मानस का क्षत-विक्षत बयान है। परिभाषाओं की औपचारिक नाटकीयता और विमर्शों की तात्कालिक दुविधाग्रस्तता के बीच, कविता का क्षण निश्चित करना दुष्कर कार्य रहा है, और इस क्षण के अवकाश में सामाजिक अंतर्विरोधों के अन्योन्याश्रित दबावों की जाँच करना और भी कठिन। यह सवाल आज भी उतना ही विचलित कर देने वाला और लगभग निलंबित भी है कि चुनौतियों और विश्वास के पारस्परिक प्रयोजन, फलसफों की कुपढ़ व्यावसायिकता से दूर, सभ्यताओं के भरोसेमंद अंत:करण कैसे निर्मित करें?

हरीशचंद्र पांडे को पढ़ना अपने ही किसी धुँधलाये और नजरंदाज कर दिए गए अनुभव की ओर बरबस मुड़ पड़ना है। वहाँ एक निरंकुश अंतर्द्वंद्व के विरुद्ध खड़ा हुआ सामूहिक आत्म-संघर्ष स्पष्ट दिखाई देता है। आकस्मिकताओं की जद्दोजेहद से स्मृतियों का पुनर्वास तैयार करतीं उनकी कविताएँ हमारी खामोश दुनियादारी के बीच, जोखिम से भरे सपनों और मुठभेड़ करते अंदेशों की उपस्थिति हैं।

ये कविताएँ अपनी आश्वस्ति में जितनी विचलित कर देने वाली हैं, अपने प्रतिरोध में उतनी ही निर्भ्रान्त और उत्सुक भी हैं। इनमें हमारे दौर का भरापूरा बेचैन सयानापन अपनी निरभ्र कटुता और लाइलाज असमंजसपन के अटपटे और इकहरे अतर्क से दो-चार होता है और इसी तरह से जीवन के गहरे अंदेशों के विरुद्ध तमाम असंतुष्ट आकांक्षाओं का गूढ़ द्वंद्व, रचना के स्तर पर उठता-गिरता चलता रहता है। ये अंदेशे और आकांक्षाएँ बड़े स्वायत्त आत्मविश्वास के साथ एक दूसरे के सामने मौजूद होते हैं। इस तैयारी में न कोई चौंक है और न ही कोई ऊब। इसीलिए एक प्रौढ़ विक्षोभ के साथ अपनी समग्र भाव-वेदना में ज्यादा अधूरे और इन्हीं वजहों से ज्यादा तैयार मनुष्य के साथ बातचीत करती कविताएँ हैं ये - बार-बार गिरती हैं समेटी गई चूड़ियाँ / खन्न से / गुच्छे से निकल-निकल झूलने लगते हैं बाल / बार-बार हाथ उठे हवा में / खन-खन करते, संभालते / बार-बार कोहनी से धकियाये जाएँ बाल / राग एक उलट-पुलट कर मुट्ठियों / तले सींझता रहा / मशक्कत के दबाव में / रोटी जो फूल कर नाची / ऐसे ही नहीं... (गुंथाई का राग)

केवल विटनेस होकर या इन कविताओं का होशियार अभ्यासी बनकर कामचलाऊ सुरक्षा-बोध से ग्रस्त तो हुआ जा सकता है पर इन कविताओं की बुनियादी माँग भागीदारी है, दावेदारी नहीं। भागीदारी हरीशचंद्र पांडे के यहाँ किसी तकनीकी भावोत्तेजना का इश्तिहारी आशय भर नहीं है वह हमारी जीवेषणा का आपद्धर्म है। संभवतः यही कारण है कि ये कविताएँ अपने रचनात्मक निर्वात में एक साथ जितने अनायास सुरक्षा-बोध के साथ संभव होती हैं उतने ही निरापद अनुमानों के साथ भी संदर्भित होती हैं। यह ऊहा-पोह इन कविताओं के आंतरिक और बाहरी परिसर को कसे रहता है। इस अंतर्संगति से कविता का बुनियादी औचित्य भी निर्धारित होता है और जीवन तथा भाषा के वृहत्तर फलक पर उसका एक आलोचनात्मक कुटुंब भी नियत होता जाता है - उसने पूछा सपनों के बाद वह / क्यों टटोलने लगता है खिड़कियों की छड़ें / और दरवाजों की कुंडियों की मजबूती / वह कहता है / उससे भूल हो गई है शायद / उसे सही जगह लेनी थी जमीन / उसे सही जगह दाखिला दिलवाना था बच्चों को / सोच समझ कर दोस्ती करनी थी / ...... / उसके स्वर बिखर रहे थे / उसके चेहरे पर एक बोझिल तनाव था / आँधी में थपेड़े झेलते किसी पेड़ / की जड़ों में / देखा जा सकता था जिसे (उसने कहा )

हरीशचंद्र पांडे की कविता कालातीत संयम की कविता है। वे विचार को अपने समग्र संकल्पशील पुरुषार्थ के साथ साधते हैं। उनके पास विचार किसी सांकेतिक आतंक की बुजदिल कराह की तरह नहीं पहुँचता बल्कि उसकी उपस्थिति व्यापक वस्तुगत काल-खंड में एक दोस्ताना यथार्थ और घनिष्ठ अनुशासन की तरह होती है। यह अनुशासन उनकी कविताओं की बुनियादी अनुगूँज बनाता है। ये ढाँढ़स बंधाती या स्वागत में मुस्कुराती कविताएँ नहीं हैं जो अंधकार को थपथपाते हुए उजाले का आचमन कर रही हैं। इन कविताओं के पास बहुत गुपचुप अपनी संपूर्ण अतृप्ति और हताशा के साथ पहुँचना होता है - पारे सी चमक रही है वह / मुस्कुराते होंठों के उस हल्के दबे कोर को देखो / जहाँ से रिस रही है दहशत / एक दृश्य अपने-अपने भीतर बनते बंकरों का / एक ध्वनि- फूलों के लगातार टूटने सी / एक कल्पना- सारे आपराधिक उपन्यासों / और कहानियों के पात्र जीवित / हो गए हैं (दहशत)

संवेदनाओं को गंध और सैद्धांतिकी को ताबीज की तरह महसूसने वाले इस कवि-मन में रेखांकित की जा सकने योग्य करुणा और सदाशयता देखी जा सकती है। कैसे अपने समय के जटिलतम समानांतरों से जूझता एक कवि, विलंबित यातनाओं के बीच ओझल होते जाते डायलाग को अपने तीव्रतम आरोह में, अनुभवों के विस्फोटक मोनोलॉग में तब्दील कर देता है और यहीं से त्रासदियों के अंतहीन वर्तुल का चक्र शुरू होता है। इसके सहारे अस्वीकार के तमाम पूर्वाग्रह, जो सर्जना के स्तर पर फैंटसी में बदल दिए जाते है या फैनेटिक्स में, द्वंद्व और संघर्ष के सहानुभूतिपूर्ण अभिप्राय से जोड़ कर देखे जाने लगते हैं - देहें सभी की उल्टी लटकीं थीं / रक्त सभी के चू रहा था नीचे थाल में / जीभें लटकीं और आँखें पथराईं सभी की थीं / रानें सभी की डोल रही थीं हवा में / गोश्त की दुकान और खरीददारों की भीड़ / किसे माना जाय उल्टे लटके अपने समकालीनों में सबसे / बेहतर / किसी की आँखें बड़ी हैं किसी की रानें / और किसी के शुक्र कोष / ये भीड़ किधर जाएगी ? (ये भीड़ किधर जाएगी)

इन कविताओं में जितने अपने आसन्न संकट की बेलौस पहचान है उतनी ही बाध्यताओं के प्रश्नहीन तनावों के बीच, अनजाने में ही फल-फूल रही नैतिक भंगिमा का स्वाभाविक इंतजार भी है जो किसी भी निराशा, उपेक्षा और पलायन के आत्मग्रस्त और इसीलिए मृत विकल्पों के बीच अपने जीवन संवेग को अनुरक्ति का साहस और आस्था का राग सौंपे। इसीलिए स्मृति को उसके वर्तमान से देखने का प्रयास है न कि उसके भविष्य से। कवि आगामी और व्यतीत के बीच न तो कोई विभाजक रेखा ही खींचता है और न ही किसी सवालिया अंतराल की कोई सीमा-रेखा बाँधता है। वह समय को उसके डी-जेनेरेशन और अनिवार्य अपकर्ष की नैसर्गिकता में पूरी निर्मम मांसलता के साथ घटित करता है - जेब में छुपाई चीज को / मंसूबों के साथ देख रहा हूँ / अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित उपग्रह देख रहा हूँ / उपग्रह जो देख रहा है उसे देख रहा हूँ बैठे-बैठे / आनेवाली मूसलाधार बारिश देख रहा हूँ / अभी सर पर ढोई जा रही बाल्टियाँ देख रहा हूँ / नई सदी का बुलंद दरवाजा देख रहा हूँ (पारदर्शिता)

समय और उसकी प्रतीति शायद ही किसी अन्य समकालिक में इतनी शरीरी और अभीष्ट हो। एक लंबे आलाप के साथ द्रुततर होता जाता काल, रैंडम ढंग से औचक डूब में उतरता जाता है। स्मृतियाँ सिमट जाती हैं। संदर्भ स्फीत होने लगते हैं और इतिहास वर्तमान में फैल जाता है। इन कविताओं का होना जीवन-द्वंद्व के संक्रमण में निहत्थे संस्कारों के साथ उतरना है और स्वयं को अपने युग-लय में नग्न इतिवृत्त के सुपुर्द कर देता है। फिर ये इतिवृत्त खुद को बेआवाज करते हुए कविता की संरचना में एक सार्वजनिक नैरेटिव के रूप में स्थानांतरित होते चले जाते हैं।

हरीशचंद्र पांडे की कविताओं में जीवन, मनुष्यता के आडंबरहीन आशय की गुंजाइश तैयार करता है। रचना के शिल्प में सांस्कृतिक भूमिकाओं के जनधर्मी विवेक यहाँ जितनी आदिम गहमा-गहमी के साथ कायम हैं उतने ही आधुनिकतम उत्ताप के साथ भी तैयार मिलते हैं। यह एक तरह से दो विस्मृत और भटके हुए जीवन-संदर्भों के अंतर्गमन जैसा है। यही जीवन-संदर्भ अपने जनसंकुल संवेदनशीलताओं के व्यापक विश्वास के जरिये, यथार्थ की जिल्द चढ़ी धारणाओं के लुभावने और दमघोंटू अमूर्तन से भी जूझता है - खिलौने टूटते रहते हैं / खिलौने इसीलिए अमर हैं / टूटता नहीं फूटता नहीं कभी जो / वो एक ऊब है / और बच्चे / सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, ऊब नहीं / जो कहिए बच्चों से ये लो अमरत्व / वे उसे भी / खिलौना बना कर रख रख देंगे ( खिलौने अमर हैं )

अनुभूतियों के अकबकाये या तराशे-माँजे कैनवास हमें इस कवि में नहीं मिलते। उसका कारण है कि विचार इन कविताओं में न किसी बौद्धिक आजमाइश के तौर पर आता है और न ही किसी श्रमसाध्य जहमत के बतौर। इन कविताओं की पहचान विचार के साथ बुरी तरह सरलीकृत हो चुके संवेदन को उसके समूल विपर्यय के साथ उद्घाटित करने में होती है। यह समझते हुए कि यथास्थिति और अस्वीकार जैसे तयशुदा खतरे, सामाजिक-राजनीतिक अवधि के मध्य आत्म-प्रदर्शन और बड़बोलेपन की गुणात्मक प्रतिक्रियाओं में टूट जाते हैं और चुभते चले जाते हैं।

बड़ी आसानी से देखा जा सकता है कि जिस तरह से हमारे इर्द-गिर्द यथार्थ एक खास किस्म की सपाट और वृत्तात्मक जकड़बंदी में लिप्त है, ऐसे वक्त में जिम्मेदारियों के स्थूल जायजे और दुर्भाग्य के इलहामी फरमान को कविता की पटकथा बनाने का आग्रह बढ़ा है। और यहीं से हरीशचंद्र पांडे मौजूदा सामाजिक व्यक्तित्व के साथ एक खिन्नता और दुश्वारी से भरा रास्ता, रचना के स्तर पर तलाशते हैं। जिससे कि काव्यभाषा रचनाकार के भावनात्मक आत्मसंघर्ष और परिस्थितिगत विषमताओं को प्रतिरोध के संगठित भरोसे के प्रति वफादार और प्रासंगिक बनाती चली जाती है। यही वजह है कि आदमियत और सियासत के बीच का पारस्परिक बंजरपन बिना किसी नाटकीय शिष्टाचार के मुखर होने लगता है - वह कथ्य की चोरी के इल्जाम में धर लिया गया / जबकि वह रूप पर मोहित था / साफ कमरे को और भी साफ करते वक्त / उसकी अनामिका मचल उठी थी / एक अँगूठी की कीमती झिलमिल उभर आई थी फर्श पर / ...। / जेब में डालने की नहीं, हाथ में डालने की कोशिश कर रहा था / उसकी नीयत में बदननीयती का रंग चढ़ाकर / रँगे हाथों पकड़ लिया गया / और वहाँ पहुँचा दिया गया / जहाँ रँगे हाथों वाली एक बगिया ही चहक रही थी (उनका भविष्य)

व्यवस्था का मनुष्यता के साथ लगातार घटित हो रहा यह वात्सल्यपूर्ण कपट सिलसिलेवार दुर्घटना के साथ कविता में बड़े अविचलित धैर्य के साथ गुँथता है। और इसी क्रम में यथार्थ और विचार जहाँ एक ओर सार्वजनिक बहुरूपियेपन के वर्चस्व से भरे दुराग्रहों से मुठभेड़ करते हैं तो वहीं दूसरी ओर प्रतिपक्ष के अनिवार्य विवेक का सामना करते हुए प्रगति के विक्टिमाइजेशन के घटाटोप से भी जूझते हैं। ऐसे समय में जब पक्षधरता और पालतूपन के बीच शातिरपन से भरे संयोग, सचेत और अचूक रेखांकन के बीच बाधा बन कर खड़े हों और कविता को संवाद का माध्यम बनाना एक मोहग्रस्त एकालाप में खुद को ढकेल देना हो, ये कविताएँ चाबुक की तरह हमारी मूर्च्छाओं पर पड़ती हैं और झिंझोड़ कर पूछती हैं कि कविता संवाद नहीं है तो फिर क्यों है? - झुकी आँखों का इतिहास / राजा का नहीं होता / राजा अधिक से अधिक राज दरबार से उठकर अंतःपुर में चला जाता है / एक समझदार राजा / कभी नहीं कहता / मुझे कल सुबह तक / मेरी ओर उठने वाली आँखें चाहिए / राजा लगाता है आँखों के मेले / अपने खिलाफ फैलते सपनों वाली / आँखों को / पक्की तौर पर पहचान लेता है / अगली सुबह / अमात्यों के बीच / कमल सा मुस्कराता है / राजा का चेहरा (आँखों का इतिहास)

ऐसे में सवाल अब कविता के हस्तक्षेप से अधिक उसके इस्तेमाल का है। छवियों को परिदृश्य में बदल सकने की वस्तुपरक स्वप्नशीलता का है। एगनी को एपैथी में शुमार करने का सामर्थ्य रखने वाले सहभागी औचित्य से है। यही वजह है कि ये कविताएँ बड़बोली नहीं हैं, शोर-शराबे और हुंकार से भरा कोई उन्मादी नॉस्टेल्जिया भी यहाँ नहीं है। यहाँ तक कि किसी अवसादी शिकन या निजी फुरसतियापन को अवधारणात्मक वारदात में तब्दील करने का कोई हाहाकारी अभिनय भी नहीं है। अपने सर्वायामी मंतव्य में दो-टूक इन कविताओं को बड़े गैर-मामूली रूप से व्यंग्य और वक्रता के पारस्परिक अनुशीलन से जोड़ने वाली आत्म-स्वीकृति के तौर पर देखा जा सकता है और साथ ही ख्याल रहे कि आत्म-स्वीकार का यह अभय, विचार को जीवन के दायरे में जितना विस्तारित करता है उतना ही समेटता भी है।

बड़े ही गौरतलब यकीन और बेपरवाह वैभव के साथ हरीशचंद्र पांडे गंभीर-मिजाज कौतुकप्रियता के विरुद्ध अविरत लोकसंपृक्ति और ठसक से भरे भाषा-शास्त्र के साथ उपस्थित होते हैं। इस खबरदार, बहुकेंद्रित मौजूदगी में सामुदायिक अंतर्ध्वनियों का उद्वेग और उस जीवन-बिंब का ऐंद्रिक तत्काल भी शामिल रहता है। ऐसे मौके पर कृति स्वयम को बड़े स्थायी साहचर्य के लिए खड़ा करने लगती है। खुद को ही अतिक्रमित करने का सौंदर्य-शास्त्र भी संभवतः यही है - बच्चे के कंधे पर / शताब्दियों का भार है / पुस्तकें बताती हैं / हर शताब्दी / हो कर गुजरी है / प्रिज्म से / गौरव की लज्जा की / सौहार्द्र की नफरत की / गुलामी की आजादी की / हर रंग की शताब्दियाँ / माँ सहलाती है / धीमे-धीमे / कंधे पर गहराए / शताब्दियों के सांचों को (शताब्दियों का भार)

ये कविताएँ इतिहास को बड़े पुरुषार्थी जीवन-रूपकों के साथ देखने की आदी भी हैं। नकाबपोश पुरातात्विकता की गिरोहबंदी और अतीत के रहस्य-गोपन से भरे रिफ्यूज के बरक्स इनकी ताकत इतिहास को समकालीनता के सिलसिले में पुनरुत्पादित करती है। उनकी संवाद-विमुख अतिरंजना को खरोंचती है। परिवेश के स्वत्व और संवेग को मानवधर्मी स्वप्नशीलता के संगठित उद्यम के रूप में सहेजती है। इनमें इतिहास अपने आधुनिकतम व्याकरण और सबसे समीचीन उत्प्रेरक के बतौर प्रवेश करता है और एक साथ हमारे वर्तमान सरोकारों, क्षोभ और आकुलता के नॉर्मेटिव पहलुओं को खोलता चला जाता है जिससे कविता का आतंरिक स्थापत्य बेहद तरल और नम होने के बावजूद भी अपनी पार्थिव निरंतरता में जीवन के सत्य और पाखंड का प्रौढ़ और स्पष्ट मनोजगत सामने ले कर आने लगता है।

संभवतः इसी वजह से ये कविताएँ हमारी सार्वजनिकता और सामयिकता के बीच कातर आवाजाही के साथ-साथ निस्संकोच मैत्री भाव का भी शिल्प चिन्हित करती हैं। ये हमारे सबसे रैखिक, सरल मन-चित्त और जीवन-चर्याओं की कविताएँ हैं। बिना किसी शरारती जुमले या फिर खून-खौलाऊ तरकीब के इन कविताओं की उत्तेजना और ताप अपना आकार पाते जाते हैं जो हमारे आस-पास की भयाक्रांत मनःस्थितियों और विक्षुब्ध उत्सवधर्मिता की ही कोख से निकले हैं - शीशे का एक जार टूटा है / एक हाथ छूटा है कोमलतम गाल पर अभी / चंचलता का काँचपन टूटा है / घर तो एक प्रजातंत्र का नाम था / बार-बार कहा गया था कि / जनता राज्य में ऐसे विचरे / जैसे पिता के घर में पुत्र / प्रजातंत्र टूटा / एक मिथक की तरह... (प्रजातंत्र)

इसमें कोई दो राय नहीं कि अनास्था का डायलेकटिक्स जितना कामनाओं के वर्जित समुच्चय के रचाव का कारण है उतना ही आत्महंता सभ्यताओं के बेनामी प्रति-संसार की आधारशिला भी। अपनी ही यातनाओं से अनुकूलित हो जाना भी हमारे अस्तित्व की एक बड़ी दुर्घटना है। यह सच है कि किसी ऐतिहासिक विक्षिप्ति या जैविक शर्त पर कविता नहीं लिखी जाती। इसीलिए हरीशचंद्र पांडे की कविताओं का कोई संकल्प या कार्यक्रम नहीं है। ये वर्गीकृत मुहिम की साजिश से चलाई जा रही अज्ञात संस्कारधर्मिता को संबोधित कविताएँ हैं।

पांडे जी की कविताओं के तीन संभाव्य पड़ाव हैं - अकुलाहटों की सामाजिकी की बुनावट, संस्कारग्रस्तता और आकस्मिकता के विविधवर्गी तनाव और राजनीतिक-सांस्कृतिक साफबयानी के बीच पनप रहे अस्मिताओं के बुनियादी इल्यूजन और सत्याभास। ध्यान रहे कि यहाँ अकुलाहट कोई आत्मविस्मृत और आरोपित क्रिया नहीं है। यह भी सच है कि हिंदी कविता में अनगिन बार यह आत्म-स्पृहा या सर्व-निषेध के रूप में आती रही है। हरीशचंद्र पांडे के यहाँ यह अकुलाहट अधिकतम संभावनाओं के परिवृत्त में निजता के न्यूनतम गुंजाइश की माँग है। वैचारिक अनुशासनों की जाँच-परख के लिए कविता का रचनात्मक मानस, बदलावों और परिवर्तन के वृहत्तर आवेशों से जुड़ता-बनता रहता है। ये बहुआवेशित प्रक्रियाएँ बहुधा अमूर्त, अनगढ़ और असावधान मेलजोलपन में कविता को सत्याग्रही संभावना तो दे देती हैं पर उसे भीतर ही भीतर एक किस्म के अयाचित प्रवास के सुपुर्द कर जीवित अनुभव-राग से वंचित करती जाती हैं। इन कविताओं में अकुलाहट की परतें इन्हीं जीवन-अवस्थाओं के मंद्र सामंजस्य के हवाले से समझी जा सकती हैं। ये अकुलाहटें व्यक्ति के स्तर पर जितने सुदीर्घ बहिष्कार से पैदा होती हैं उतनी ही व्यवस्था की आपराधिक आसक्ति के निषेध से भी। युक्तिसंगतता और आकस्मिकता का यह कविता के प्रत्यय में कठिनाई से साधा जाने वाला प्रयोग है - बुलबुले नहीं थे हम कभी भी / हम कछार तक फैले हुए पीली सरसों के खेत थे / हम झुठलाये तो नहीं जा सकते थे आखिर / हमारा आना जाना / केवल बनना और फूटना नहीं था / .../ तुम्हें क्यों लगता है सब मिथ्या / तुम्हें क्यों नहीं लगता एक सच / ये चीजों का पाना, उनका छूट जाना और फिर-फिर पाना उन्हें / ये विविध रंग / जो वस्तुओं में हों या फिर हमारी आँखों में / हैं जरूर जीवन में (कुछ भी मिथ्या नहीं है)

यहाँ तक कि परंपरागत कलागत दबावों का उपयोग भी कवि अपनी विरासत की गवाही के लिए तैयार करता जाता है जिसका साध्य जीवन के वस्तुगत और आलोचनात्मक प्रतितर्कों का एकत्रीकरण है। बाकी काम कविता की अंदरूनी भाव-संपदा पूरा करती है जिसमें जीवन-यथार्थ के विडंबनापूर्ण तर्क, अभिलाषाओं की मनोगतिकी, स्वप्न के अनुप्रस्थ प्रतीक दर्ज हैं। इन्हीं कारणों से हरीशचंद्र पांडे का काव्य-संसार परंपरा से दरकिनार कर दिए गए मानव आस्थाओं को उनकी मिट्टी,जड़ और आयतन से अपनी समग्र सांस्कृतिक उथल-पुथल के साथ सामने लाता है। फिर भी कविता का अंतर्जगत न किसी तटस्थ सिमबॉलिज्म का शिकार होता है और न किसी दकियानूसी मेटाफिजिक्स का - म्यानों में सोई हैं तलवारें / सोये हुए अजगरों की तरह / बादशाह की अंतिम इच्छा की तरह लटकी हैं तलवारें / कि नापी जाय उसकी अंतिम इच्छा फीते से ही / मगर नाप न सके पूरी / गुजरी बादशाहत के साथ चुक नहीं गई हैं तलवारें / म्यानों के भीतर आँखें मिचमिचा रही हैं / म्यानों से निकल रही हैं तलवारें / किसी वाजिब तर्क के नकार की तरह (तलवारें)

कहीं भी इन कविताओं में अपनी पक्षधरता के प्रति कोई मनुष्य प्रतिगामी या जीवन-द्रोही बहकाव नहीं मिलेगा। ये कविताएँ उस लोकधर्मी उद्योग का वह आत्मनिर्भर आदमकद हैं जो व्यवहारों के अस्थिर और गड्डमड्ड निष्ठाओं के बावजूद अभिव्यक्ति के सुदीर्घ अर्थग्रहण को मुमकिन बनाते हैं। भाषा को निरी अभिव्यक्ति के अतिक्रमण का माध्यम बनाए रखने और संवाद के जिरहबख्त प्रतिमानों के सापेक्ष काव्यशास्त्रीय नफे-नुकसान से बेपरवाह यह कवि 'मौन' और 'मित' के महीन फासले पर अपने रचना-काल को सुनिश्चित करता है। इसलिए इनमें कोई राजनैतिक स्टंट या बख्तरबंद बयानों की खोज संभव नहीं। इन कविताओं को बिना किसी मनसबदारी या जी-हुजूरी के ही आत्मसात करना पड़ता है - जहाँ छोड़ दूँ मैं / तुम सिरा थाम लो / जहाँ तुम छोड़ो / मैं थाम लूँ / देखो! कट जाएगा जीवन / जरूरी नहीं हर गंभीर बात / गंभीरता से ही की जाय / इसी बात को बच्चे कह डालेंगे / खेल-खेल में / आओ अंत्याक्षरी खेलें (अंत्याक्षरी)

इन कविताओं के विरुद्ध खड़ा होना स्वयं के विरोध में भी खड़े होना है। इनमें हमारी खामोशी और संकल्प के अचेतन को खंगाला जा सकता है। आसानी से इन्हें पढ़कर ताबड़-तोड़ फैसले नहीं दिए जा सकते क्योंकि ये कविताएँ प्रतिध्वनियों के ढीठ उद्दीपनों से कोई समझौता नहीं करतीं। हर दरबारी अवसरवाद के अनादृत और नोच-खसोट लेने वाले घेरावों के जोखिम को पहचानती हुई इन कविताओं में हमारी अपराजित जूझ और करुणा की संहिताएँ साँस ले रही हैं। ये कविताएँ पुकारती नहीं हैं, इनमें कोई आवाहन भी नहीं है। बस ये हमारे होने और बने रहने की बेधड़क जिद का साक्ष्य हैं। और इसी जिद का आस्वाद अपने तमाम विलोम और विचलन के साथ हमारे जीवन-संघर्ष की जलवायु और तापमान में बदल जाता है।

कवि जितना हमारे नैतिक संगठन को झिंझोड़ता है उतना ही अपनी परंपरा के प्रति जिम्मेदार भावुक संसक्ति को भी। मात्र अपनी दुस्साहसिक प्रतियोगिताधर्मिता की जिद में एक जड़ प्रतिवाद को भी कट्टर सौंदर्यबोध में बदल डालने की पैरवी करने वाले रचना-प्रयोजनों को न्याय और विकल्प की आधारभूत संप्रभुता देती हैं ये कविताएँ। इनमें हिंदुस्तान के औसत निम्न-मध्यवर्गीय मानस का पूरा संसार है जिनके अधेड़ संघर्षों में कितने ही सारे शिशु स्वप्न किलक रहे हैं। खंडहर-जर्जर हो चुके वर्तमान अपने गगनचुंबी भविष्य की ओर पूरी स्नायविक उम्मीद और करुणा से देख रहे हैं - उसकी आँखें खुली समझ / उसके लिए एक नारियल फोड़ दो / एक बकरा काट दो / दिन में शीश नवा लो कई-कई बार / उसकी आँखें बंद समझ / बिना यात्रा किए यात्रा बिल बना लो / डंडी मार लो बलात्कार कर लो / या गला रेत दो आदमी का / एक बड़ी सुविधा है ईश्वर (ईश्वर)

ऐसे में कविता की 'क्रिया-बहुलता' कविता की केंद्रीय इकाई की तरह प्रयुक्त होने लगती है। एक परिवार का सच, राज्य और राष्ट्र के सत्य से मुखातिब होने लगता है यहाँ तक कि जबान लड़ाने लगता है। सारी तृष्णाएँ कटघरे में एकजुट होने लगती हैं और एक जीर्ण पर सीधी रीढ़ जैसे अनुभव-द्वंद्व जिसे समकालीन नुक्ते से अनुपयोगी और अप्रचलित कहा जा सकता है स्वयं से और उस स्व के प्रति जिम्मेदार हर फॉर्म से बेफिक्र और एक हद तक उजड्डता से जिरह करना शुरू कर देता है। यहाँ इस बात को भी याद रखा जाय कि कविता के वैचारिक मंसूबे और पारिभाषिक वितान के सवालों के क्रम में भाषा का संगठित संवेग कमाया भी जा रहा है और मूल्यों के निष्पक्ष आत्मालोचन पर खर्च भी हो रहा है।

ऐसी कविताएँ हमारे दैनंदिन विकल्पों के बेरोजगार होते जाते श्रम और उनके लिए पाले-पोसे जा रहे जादूगर वायदों का क्रिटीक पेश करती हैं। उन्हें बहलाती-फुसलाती नहीं है। यह भी है कि उन्हें फुटपाथ पर भी नहीं छोड़ती। फितूराना प्रगतिशीलता या जुनूनी भावुकता के परे इन कविताओं में हमारे टूटते-बनते संदेह, संकोच, भय, छायाओं और ऊब के रोजनामचे मिलते हैं। हर चूक और लाचारी के साथ इन कविताओं की सहज और आत्मीय संगति है। ये अपने एकाकीपन में भी इस हद तक सामाजिक हैं कि उकसा कर धमकियाए जा रहे या साजिशन भुनाए जा रहे सारे प्रतिषेध पूरी तरह से बड़े निरापद जीवटपन से एकमेक हो जाते हैं - जहाँ सूर्य वहाँ दिवस / जहाँ राम वहाँ अयोध्या / कितनी बड़ी अयोध्या सौंप गए थे / तुलसी हमें / कितनी छोटी रह गई है अयोध्या / मतपेटिका से भी छोटी (अयोध्या)

यह कवि प्राथमिकताएँ नहीं चुनता। उसका कोई मिशन नहीं है। वह घर-दरवाजे, चौराहों पर खड़ा, कंधे थामता, सहलाता और समग्र ममत्व में दुलराता चलता है। इन कविताओं से तफरीह करते, बतियाते गुजरा जा सकता है पर इनसे वापसी एक आत्महंता तृप्ति और चेतना की वापसी भी बन जाती है। कवि आत्मचिंतन के सबसे अजनबी रास्तों पर हमें ढकेलता है बिना किसी कथावृत्त या भूमिका के। आत्मतोष के गहरे, ठंडे पालतूपन और सुविधापरस्ती की लगभग बेसुध मर्यादाओं का कड़ा प्रतिरोध करतीं ये कविताएँ न कोई चेतावनी देती हैं और न ही कोई फटकार लगाती हैं। वे हमारे समय की अतिरंजित बातूनी आत्मस्वीकारोक्तियों के सामने एक निचाट आडंबरहीनता का ब्यौरा भर पेश करती हैं और चुप हो जाती हैं - चूँकि बच्चे / विपक्षी की भूमिका नहीं निभा सकते / चूँकि बच्चों की कोई सरकार नहीं होती / चूँकि बच्चे अपने खिलाफ जाँच में / जेबों के अस्तर तक उलट कर रख देते हैं / इसलिए बच्चों के बारे में गंभीरता से सोचो /.../ बच्चों के बारे में किए गए निर्णय / कागज पर कुएँ खोदने या / वृक्षारोपण के निर्णय नहीं / बच्चों के बारे में किए गए निर्णय / काली मिट्टी में / कपास उगाने के निर्णय हैं (बच्चे)

यहाँ पर्दाफाश करने की न तो कोई मुँहजोर विज्ञापनधर्मिता है और न किसी अबूझ को भाँप लेने की प्रोफेशनल खुशफहमी। समय की ढकी-मुँदी सरहदें और सभ्यताओं के उदास स्वर इन कविताओं की चौहद्दी हैं। स्वप्न और संवेदना के एक वैश्विक देशज का निर्माण करतीं इन कविताओं में हालातों के कमॉडीफिकेशन से हाथ मिलाने को मजबूर शब्दबहुल हार्दिकताओं का अंतःसंसार आकार पा रहा है। दस्तावेजी छलनाओं से लथपथ सामंती अहं-केंद्रित चिंतन को निरंतर महसूसने वाला रचना-तर्क है यह।

दुनियावी जवाबदेही की परवाह न करते हुए कविता स्वयं के प्रति उत्तरदायी होती है। इसे सहूलियत से बरते जाने वाले भाषिक बिरादरीपन से नहीं समझा जा सकेगा। यह जानना जरूरी है कि यहाँ कविता अभिव्यक्त होने के लिए न तो किसी सीलबंद मेटाफर का सहारा लेती है और न ही किसी विरोधाभासी कारक का। दबे पाँव, घात लगाकर, बदहवासी से किसी अंधे विचार को हवा देने वाली हमलावर कविताओं से अलग हरीशचंद्र पांडे का कविता-जगत हर अधिनायकवादी विनोदप्रियता का सामना करता है। निस्पृह से दिखती उदासीन किस्सागोई का भंडाफोड़ करता है। यही वे घातक तत्व हैं जो हमारे सबसे सुलभ और सांस्कृतिक अपनापे को लगातार लावारिस बनाते जा रहे हैं - 'लाल इमली' कहते ही इमली नहीं कौंधी दिमाग में / जीभ में पानी नहीं आया / 'यंग इंडिया' कहने पर हिंदुस्तान का बिंब नहीं बना / जैसे महासागर कहने पर सागर उभरता है आँखों में / जैसे स्नेहलता में जुड़ा है स्नेह और हिमाचल में हिम / कम से कमतर होता जा रहा है ऐसा / इतने निरपेक्ष विपर्यस्त और विद्रूप कभी नहीं थे हमारे बिंब / कि पृथ्वी पर हो सबसे संहारक पल का रिहर्सल / और कहा जाय / बुद्ध मुस्कराये हैं (बुद्ध मुस्कराये हैं)

याद नहीं है पर कभी पढ़ा था कि कविता समय की देह पर त्वचा की तरह मढी हुई है। वह हमारे संसार के सबसे ऑर्गेनिक और प्रकृत आस्वादों में से एक है - हमारी सबसे प्रवहमान और अक्षुण्ण जीवनानुभूति की तरह। उसका सान्निध्य इस बात का आश्वासन है कि हर दाँत पीसते हुए दुःस्वप्न के आगे हमारा लोहा लेता हुआ जागरण खडा है, हर खर्चीले अंधकार के आगे किफायती और संतोषी उजाला हमारा इंतजार कर रहा है, हर मृत पवित्रता के सामने एक खुशदिल और अल्हड़ स्वातंत्र्य मौजूद है। और ठीक इन्हीं इशारों से हरीशचंद्र पांडे की कविताओं की इबारत भी पढ़ी जा सकेगी।

एहतियातन खामोशी और मजबूर चुप्पी के बीच का जो फर्क है वही इन कविताओं से गुजरने की तमीज के साथ-साथ उनकी विभाजक रेखा भी है। इसीलिए इन कविताओं के जरिये हम अपने तितर-बितर लोक-बिंब, युग-शिल्प और प्रगति-बोध को समेटते चलते का जोखिम उठा पाते हैं। कहन और कथन का जो बड़ा बारीक सा फासला है उसकी शिनाख्त किसी रिहर्सली मिजाज का चश्मदीद होने भर से न हो पाएगी इसके लिए लोक-विन्यास के उस पाठकीय अवचेतन से रू-ब-रू होना पड़ता है जो अन्याय और शोषण के ऐतिहासिक रूपाकार को मनुष्य और समाज के सबसे विडंबनापूर्ण रिश्ते के बीच कहीं गाँठ की तरह लगा है।

अनिष्ट और अनुकंपा की साँप-छछूंदरी विभीषिका के बीच खड़ा यह कवि जीवन के सबसे सीधे और प्रत्यक्ष मुहावरे से संबंध बनाता है। इन मुहावरों को यदि आत्मलीन रैटरिक की मुद्राओं से पकड़ा जाएगा तो इन्हें सांयोगिक समझा जा सकता है। पर यदि व्यक्ति और विचार के अनौपचारिक विश्रृंखलन की परंपरा के सहारे जाना जाएगा तो वह हमारे दौर की शर्म, पछतावे और प्रतिहिंसा की शोकाकुल वर्जनाओं से भी टकराएगा, इसमें कोई संदेह नहीं।


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हिंदी समय में सुबोध शुक्ल की रचनाएँ



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